राजा दशरथ की मृत्यु – अयोध्याकाण्ड

श्रवण कुमार के वृत्तान्त को समाप्त करने के पश्चात् राजा दशरथ ने कहा, कौशल्ये!, मेरा अन्तिम समय अब निकट आ चुका है, मुझे अब इन नेत्रों से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा।

राम को अब मैं कभी नहीं देख सकूँगा। मेरी समस्त इन्द्रियाँ मुझसे विदा हो रही हैं। मेरी चेतना शून्य हो रही है। हा राम!, हा लक्ष्मण!, हा पुत्र!, हा सीता!, हाय कुलघातिनी कैयेयी!,

कहते कहते राजा दशरथ की वाणी थम गई, श्वास उखड़ गये और उनके प्राण पखेरू उड़ गये।

उनके प्राण निकलते ही रानी कौसल्या पछाड़ खाकर भूमि पर गिर पड़ीं। सुमित्रा आदि रानियाँ तथा अन्य स्त्रियाँ भी सिर पीट-पीट कर विलाप करने लगीं।

समस्त अन्तःपुर में करुणाजनक क्रन्दन गूँजने लगा। सदैव सुख-समृद्धि से भरे रहने वाला राजप्रासाद दुःख का आगार बन गया। चैतन्य होने पर कौसल्या ने अपने पति का मस्तिष्क अपनी जंघाओं पर रख लिया और विलाप करते हुये बोली, हा दुष्ट कैकेयी!, तेरी कामना पूरी हुई।

अब तू सुखपूर्वक राज्य-सुख को भोग। पुत्र से तो मैं पहले ही विलग कर दी गई थी, आज पति से भी वियोग हो गया। अब मेरे लिये जीवित रहने का कोई अर्थ नहीं रहा। कैकेय की राजकुमारी ने आज कोसल का नाश कर दिया है।

मेरे पुत्र और पुत्रवधू अनाथों की भाँति वनों में भटक रहे हैं। अयोध्यापति तो हम सबको छोड़कर चले गये, अब मिथिलापति भी सीता के दुःख से दुःखी होकर अधिक दिन जीवित नहीं रह पायेंगे।

हा कैकेयी!, तूने दो कुलों का नाश कर दिया। कौसल्या महाराज दशरथ के शरीर से लिपटकर फिर मूर्छित हो गई।

प्रातःकाल होने पर रोते हुये मन्त्रियों ने राजा के शरीर को तेल के कुण्ड में रख दिया। राम के वियोग से पूर्व में ही पीड़ित अयोध्यावासियों को महाराज की मृत्यु के समाचार ने और भी दुःखी बना दिया।

राजा की मृत्यु के समाचार प्राप्त होते ही समस्त व्यथित मन्त्री, दरबारी, मार्कण्डेय, मौद्गल, वामदेव, कश्यप तथा जाबालि वशिष्ठ के आश्रम में एकत्रित हुये। उन्होंने ऋषि वशिष्ठ से कहा, हे महर्षि!, राज सिंहासन रिक्त नहीं रह सकता अतः किसी रघुवंशी को सिंहासनाधीन कीजिये।

शीघ्रातिशीघ्र अयोध्या के सिंहासन को सुरक्षित रखने का प्रबन्ध कीजिये अन्यथा किसी शत्रु राजा के मन में अयोध्या पर आक्रमण करने का विचार उठ सकता है।

वशिष्ठ जी ने कहा, आप लोगों का कथन सत्य है। स्वर्गीय महाराज के द्वारा भरत को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया ही जा चुका है, अतः मैं भरत को उनके नाना के यहाँ से बुलाने के लिये अभी ही किसी कुशल दूत को भेजने की व्यवस्था करता हूँ।

तत्काल राजगुरु वशिष्ठ ने सिद्धार्थ, विजय, जयंत तथा अशोकनन्दन नामक चतुर दूतों को बुलवा कर आज्ञा दी कि शीघ्र कैकेय जाओ और मेरा यह संदेश भरत और शत्रुघ्न को दो कि तुम्हें अत्यन्त आवश्यक कार्य से अभी अयोध्या बुलाया है।

ध्यान रखो कि वहाँ पर राम, लक्ष्मण और सीता को वन भेजने का या महाराज की मृत्यु का वर्णन कदापि मत करना। कोई भी ऐसी बात उनसे मत कहना जिससे उन्हें किसी अनिष्ट की आशंका हो या उनके मन में किसी भी प्रकार के अमंगल का सन्देह उत्पन्न हो।

राजगुरु वशिष्ठ की आज्ञा पाते ही चारों दूतों ने वायु के समान वेग वाले अश्वों पर सवार होकर कैकेय देश के लिये प्रस्थान किया। वे मालिनी नदी पार करके हस्तिनापुर होते हुये पहले पांचाल और फिर वहाँ से शरदण्ड देश पहुँचे। वहाँ से वे इक्षुमती नदी को पार करके वाह्लीक देश पहुँचे। फिर विपाशा नदी पार करके कैकेय देश के गिरिव्रज नामक नगर में पहुँच गये।

जिस रात्रि ये दूत गिरिव्रज पहुँचे उसी रात्रि को भरत ने एक अशुभ स्वप्न देखा। निद्रा त्यागने पर स्वप्न का स्मरण करके वे अत्यन्त व्याकुल हो गये। अपने उस स्वप्न के विषय में एक मित्र को बताते हुये उन्होंने कहा, हे सखा!, रात्रि में मैंने एक भयानक स्वप्न देखा है। स्वप्न में पिताजी के सिर के बाल खुले थे।

वे पर्वत से गिरते हुये गोबर से लथपथ थे और अंजलि से बार-बार तेल पी पी कर हँस रहे थे। मैंने उन्हें तिल और चाँवल खाते तथा शरीर पर तेल मलते देखा। इसके बाद मैंने देखा कि सारा समुद्र सूख गया है, चन्द्रमा टूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा है, पिताजी के प्रिय हाथी के दाँत टूट हये हैं, पर्वतमालाएँ परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गई हैं और उससे निकलते हुये धुएँ से पृथ्वी और आकाश काले हो गये हैं।

मैंने देखा कि राजा गधों के रथ में सवार होकर दक्षिण दिशा की ओर चले गये। ऐसा प्रतीत होता है कि यह स्वप्न किसी अमंगल की पूर्व सूचना है। मेरा मन अत्यन्त व्याकुल हो रहा है।

भरत ने स्वप्न का वर्णन समाप्त किया ही था कि अयोध्या के चारों दूतों ने वहाँ प्रवेश कर उन्हें प्रणाम किया और गुरु वशिष्ठ का संदेश दिया, हे राजकुमार!, गुरु वशिष्ठ ने अयोध्या की कुशलता का समाचार दिया है तथा आपसे तत्काल अयोध्या चलने का आग्रह किया है। कार्य अत्यावश्यक है अतः आप तत्काल अयोध्या चलें।

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