ऋषि भरद्वाज के आश्रम में – अयोध्याकाण्ड

जब निषादराज गुह के वापस गंगा के उस पार चले गए तब राम ने लक्ष्मण से कहा, हे सौमित्र!, अब हम सामने के फैले हुये इस निर्जन वन में प्रवेश करेंगे।

यह भी हो सकता है कि हमें इस वन में हमें अनेक प्रकार की भयंकर स्थितियों और उपद्रवों का सामना करना पड़े। कोई भी भयंकर प्राणी किसी भी समय, किसी भी ओर से आकर, हम पर आक्रमण कर सकता है।

अतः तुम सबसे आगे चलो। तुम्हारे पीछे सीता चलेंगी और सबसे पीछे तुम दोनों की रक्षा करते हुये मैं रहूँगा। अच्छी तरह से समझ लो कि यहाँ हम लोगों को आत्मनिर्भर होकर स्वयं ही एक दूसरे का बचाव करना पड़ेगा।

राम की आज्ञा के अनुसार लक्ष्मण धनुष बाण सँभाले हुये आगे-आगे चलने लगे तथा उनके पीछे सीता और राम उनका अनुसरण करने लगे। वन के भीतर चलते-चलते ये तीनों वत्स देश में पहुँचे।

यह विचार करके कि कोमलांगी सीता इस कठोर यात्रा से अत्यधिक क्लांत हो गई होंगीं, वे विश्राम करने के लिये एक वृक्ष के नीचे रुक गये। सन्ध्या हो जाने पर उन्होंने संध्योपासना आदि कर्मों से निवृति पाकर वहाँ उपलब्ध वन्य पदार्थों से अपनी क्षुधा मिटाई।

शनैः शनैः रात्रि गहराने लगी। राम लक्ष्मण से बोले, भैया लक्ष्मण!, इस निर्जन वन में आज हमारी यह प्रथम रात्रि है। जानकी की रक्षा का दायित्व हम दोनों भाइयों पर ही है इसलिये तुम सिंह की भाँति निर्भय एवं सतर्क रहना।

ध्यान से सुनो, कुछ दूरी पर अनेक प्रकार के हिंसक प्राणियों के स्वर सुनाई दे रहे हैं। किसी भी क्षण वे इधर आकर तनिक भी अवसर पाकर हम पर आक्रमण कर सकते हैं। इसलिये हे वीर शिरोमणि!, किसी भी अवस्था किंचित भी असावधान मत होना।

फिर विषय को परिवर्तित करते हुये वे बोले, आज पिताजी अयोध्या में बहुत दुःखी हो रहे होंगे और माता कैकेयी उतनी ही आनन्दित हो रही होंगीं।

अपने पुत्र को सिंहासनारूढ़ करने के लिये कैकेयी कुछ भी कर सकती हैं। रह-रह कर मेरे मन में एक आशंका उठती है कि कहीं वे पिताजी के भी प्राण छल से न ले लें।

धर्म से पतित और लोभ के वशीभूत हुआ मनुष्य भला क्या कुछ नहीं कर सकता? ईश्वर न करे कि ऐसा हो। अन्यथा वृद्धा माता कौसल्या भी पिताजी के और हमारे वियोग में अपने प्राण त्याग देंगीं।

इस अन्याय को देखकर मेरे हृदय में अवर्णनीय वेदना होती है। जी चाहता है कि इन निरीह वृद्ध प्राणियों के जीवन की रक्षा के लिये सम्पूर्ण अयोध्यापुरी को बाणों से बींध दूँ, किन्तु मेरा धर्म मुझे ऐसा करने से रोकता है।

सत्य जानो कि मैं आज बड़ा दुःखी हूँ। ऐसा कहते-कहते रामका कण्ठ अवरुद्ध हो गया और वे चुप होकर अश्रुपूरित नेत्रों से पृथ्वी की ओर देखने लगे।

जब लक्ष्मण ने राम को इस प्रकार दुःख से संतप्त होते देखा तो उन्होंने धैर्य बँधाते हुये कहा, हे आर्य!, इस प्रकार शोक विह्वल होना आपको शोभा नहीं देता। आपको दुःखी देखकर भाभी को भी दुःख होगा।

अतः आप धैर्य धारण करें। बड़े से बड़े संकट में भी आपने धैर्य का सम्बल कभी नहीं छोड़ा, फिर आज इस प्रकार अधीर क्यों हो रहे हैं? उचित तो यही है कि हम काल की गति को देखें, परखें और उसके अनुसार ही कार्य करें।

मुझे विश्वास है कि वनवास की यह अवधि निष्कंटक समाप्त हो जायेगी और उसके पश्चात् हम कुशलतापूर्वक वापस अयोध्या लौटकर सुख शान्ति का जीवन व्यतीत करेंगे।

तृणों की शैया पर लेटे हुये राम के निद्रामग्न हो जाने पर लक्ष्मण सम्पूर्ण रात्रि निर्भय होकर धनुष बाण सँभाले राम और सीता के रक्षार्थ पहरा देते रहे।

रात्रि व्यतीत होने पर सूर्योदय से पूर्व ही राम, लक्ष्मण और सीता ने सन्धयावन्दनादि से निवृत होकर त्रिवेणी संगम की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में लक्ष्मण ने कुछ वृक्षों के स्वादिष्ट फलों को तोड़ कर राम और सीता को दिया तथा स्वयं भी उनसे अपनी क्षुधा शान्त की।

सन्ध्या होत-होते वे गंगा और यमुना के संगम पर पहुँच गये। कुछ देर तक संगम के रमणीक दृश्य को देखने के बाद राम बोले, लक्ष्मण!, आज की इस यात्रा ने हमें महातीर्थ प्रयागराज के निकट पहुँचा दिया है।

हवन-कुण्ड से उठती हुई यह धूम्र-रेखाएँ ऐसी प्रतीत हो रही हैं मानो अग्निदेव की पताका फहरा रही हों। हवन के इस धुएँ की स्वास्थ्यवर्द्धक सुगन्धि से सम्पूर्ण वायु-मण्डल आपूरित हो रहा है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हम महर्षि भरद्वाज के आश्रम के आसपास पहुँच चुके हैं।

संगम की उस पवित्र स्थली में गंगा और यमुना दोनों ही नदियाँ कल-कल नाद करती हुई प्रवाहित हो रहीं थीं। निकट ही महर्षि भरद्वाज का आश्रम था।

आश्रम के भीतर पहुँच कर राम ने भरद्वाज मुनि का अभिवादन किया और कहा, हे महामुने!, अयोध्यापति महाराज दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण आपको सादर प्रणाम करते हैं।

भगवन्!, पिता की आज्ञा से मैं चौदह वर्ष-पर्यन्त वन में निवास करने आया हूँ। ये मेरे अनुज लक्ष्मण तथा मेरी पत्नी मिथिलापति जनक की पुत्री सीता हैं।

उनका हार्दिक सत्कार करने तथा बैठने के लिये आसन दिने के पश्चात् मुनि भरद्वाज ने उनके स्नान आदि की व्यवस्था किया और उनके भोजन के लिये अनेक प्रकार के फल दिये।

फिर ऋषि भरद्वाज बोले, मुझे ज्ञात हो चुका है कि महाराज दशरथ ने निरपराध तुम्हें वनवास दिया है और तुमने मर्यादा की रक्षा के लिये उसे सहर्ष स्वीकार किया है। तुम लोग चौदह वर्ष तक मेरे इसी आश्रम में निश्चिन्त होकर रह सकते हो। यह स्थान अत्यन्त रमणीक भी है।

राम ने कहा, निःसन्देह आपका स्थान अत्यन्त मनोरम एवं सुखद है, परन्तु मैं यहाँ निवास नहीं करना चाहता क्योंकि आपका आश्रम अपनी गरिमा के कारण दूर-दूर तक विख्यात है।

मेरे यहाँ निवास करने की सूचना अवश्य ही अयोध्यावासियों को मिल जायेगी और उनका यहाँ ताँता लग जायेगा। इस प्रकार हमारे तपस्वी धर्म में बाधा पड़ेगी। आपको भी इससे असुविधा होगी।

अतएव आप कृपा करके हमें कोई अन्य स्थान के विषय में बताइये जो एकान्त में हो और जहाँ सीता का मन भी लगा रहे।

राम के तर्कयुक्त वचनों को सुन कर ऋषि भरद्वाज ने कहा, यदि तुम्हारा ऐसा ही विचार है तो तुम चित्रकूट में जाकर निवास कर सकते हो जो कि यहाँ से दस कोस की दूरी पर है और उस पर्वत पर अनेक ऋषि-मुनि तथा तपस्वी अपनी कुटिया बना कर तपस्या करते हैं।

वह स्थान रमणीक तो है ही और फिर वानर, लंगूर आदि ने उसकी शोभा को द्विगुणित कर दिया है। चित्रकूट की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि अनेक ऋषि-मुनियों की तपस्यास्थली रही है जिन्होंने मोक्ष प्राप्त की है।

महर्षि भरद्वाज ने उन्हें उस प्रदेश के विषय में और भी अनेकों ज्ञातव्य बातें बताईं। रात्रि हो जाने पर तीनों ने वहीं विश्राम किया।

Ayodhya Kand, Ayodhya Kaand, Ayodhya Kanda, Sita Ram, Siya Ke Ram,Ramayan, Ramayana, Ram Katha, Ramayan Katha, Shri Ram Charit Manas, Ramcharitmanas, Ramcharitmanas Katha, Sri Ram Katha, Ramayan Parayan, Ram, Sita Ram, Siya Ke Ram, He Ram,
ऋषि भरद्वाज के आश्रम में – अयोध्याकाण्ड

Ayodhya Kand, Ayodhya Kaand, Ayodhya Kanda, Sita Ram, Siya Ke Ram,Ramayan, Ramayana, Ram Katha, Ramayan Katha, Shri Ram Charit Manas, Ramcharitmanas, Ramcharitmanas Katha, Sri Ram Katha, Ramayan Parayan, Ram, Sita Ram, Siya Ke Ram, He Ram, Hey Ram, Ram Chandra, Raam, Ram Laxman Janki Jay Bolo Hanumanki, Tulsi Ramayan, Ramayan Bal Kand, Bal Kand, Pratham Kand Bal Kand, Ram Katha Sunaye, Ram Katha Sune, Ram Katha Book.

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

÷ 1 = 7